इंसान कभी अपनी ज़रूरतों से जूझता है तो कभी अपनी ख्वाहिशों से एक को पूरा करने के चक्कर में दुसरे की अनदेखी जाने अनजाने हो ही जाती है , कभी एक का पलड़ा भारी तो कभी दुसरे का ! कभी ख्वाहिशों के आगे ज़रूरतें दम तोड़ देती हैं तो कभी ज़रूरतों के आगे ख्वाहिशों का गला घोंट दिया जाता है !”ख्वाहिशें -ज़रुरत ,ज़रुरते -ख्वाहिश “बस इन दोनों के मध्य संतुलन बैठने में ही ज़िंदगी बीत जाती है !
यूँ तो ज़िंदगी के कई क्षण अनमोल होते है जो विभिन्न रंगों से जीवन को रंगोली की तरह रंगीन बना देते है मगर फिर भी हम मनुष्य सदैव नकारात्मक क्षणों को इस तरह पकडे रहते हैं की जीवन से हर रंग का आनंद ही समाप्त हो जाता है !
ख्वाहिश अपनी जगह ज़रूरत अपनी जगह “ख्वाहिश दिल का जूनून तो ज़रूरत शरीर का सुकून है !”इस प्रकार अपनी -अपनी जगह दोनों ही महत्वपूर्ण हैं यदि दोनों को एक दुसरे का पूरक कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी !ख्वाहिश जीवन को आनंदमयी बनाती है जिससे जीवन में उत्साह जागृत होता है और व्यक्ति में जीवन के प्रति लालसा उत्पन्न होती है इसके विपरीत आवश्यकताओं का बोझ व्यक्ति के जीवन को दुखदायी बना देता है और इससे जीवन के प्रति अनुत्साह जागृत होता है और इससे व्यक्ति में जीवन के प्रति उदासीनता व अरुचि उत्पन्न हो जाती है !
एक सुखी संतुष्टिपूर्ण जीवन के लिए दोनों ही आवश्यक हैं दोनों ही भावनाओं का सम्मान कीजिये परन्तु साथ ही यह भी याद रखिये की गुलाम किसी के न बने !फिर चाहे वह ख्वाहिश हो या फिर ज़रुरत ख्वाहिश और ज़रुरत की आपसी जंग में एक समय विशेष पर जिसका पलड़ा भारी होता है वह जीत जाता है !
मन व मस्तिष्क की इस लड़ाई में जब मन मस्तिष्क पर हावी हो जाता है तो जीत सदैव ख़्वाहिश की ही होती है और जब मस्तिष्क मन पर हावी हो जाता है तो जीतn सदैव आवशयकता की होती है !मन की पूरी तो मस्तिष्क परेशान और मस्तिष्क की पूरी तो मन परेशान ! आखिर करे तो क्या करें इंसान ?
एक में संतुष्टि तो दुसरे में असंतुष्टि, एक में जूनून तो दुसरे में सुकून यूं तो दोनों का चोली दामन का साथ है परन्तु फिर भी संबंधों में संदेह अज्ञात है !दोनों के मध्य गतिरोध है और हो भी क्यों न वास्तव में ख्वाहिशों का ज़रुरत से बैर सव्भाविक ही है क्यूंकि ख्वाहिशों अक्सर ज़रूरतों के आगे दम तोड़ देती हैं या ये भी कहा जा सकता है की ज़रूरतें ख्वाहिशों पे भारी पढ़ जाती हैं इसके उलट ज़रूरतों का भी यही हाल है ज़रूरतें सपनी प्राथमिकता के आधार पर ख्वाहिशों को सीमित कर देती हैं !
ख्वाहिशें हों या ज़रूरतें दोनों ही आत्मा और शरीर की भांति मानव जीवन की प्राथमिक आवश्यकतायें है इन्हें कम ज़्यादा तो किया जा सकता है परन्तु साधु संत व महात्माओं की भांति पूर्णतः समाप्त नहीं किया जा सकता !ये हम जैसे साधारण मनुष्यों के बस की बात नहीं !
आज के आधुनिक युग में मनुष्यो में आवश्यकताओं और ख्वाहिशों के दमन की इच्छा भी नहीं के बराबर ही पायी जाती है जिसे देखो वही अपनी ख्वाहिशों और आवश्यकताओं के पीछे दौड़ रहा है सबंधों में संतुलन मानो समाप्त सा होता जा रहा है और यही कारण है कि एक संबंधो को निभाने के लिए दूसरे संबंध की अवहेलना कर दी जाती है आज व्यक्ति ख्वाहिशों और आवश्यकतों की बेड़ियों में जकड़ कर रह गया है जहां व्यक्ति से व्यक्ति का सम्बन्ध टूटता जा रहा है !ये सब क्यों और किसलिए ?यदि समस्या का हल ढूँढना है तो समस्या के कारणों की पहचान तो करनी ही होगी !
समस्या के कारणों की पहचान कर जीवन में संतुलन स्थापित कर आगे बढ़ते रहिये अगले ब्लॉग में फिर मुलाकात होगी तब तक के लिए हंसते रहिए- हंसाते रहिए जीवन अनमोल है मुस्कुराते रहिये !
धन्यवाद !
🙏🙏🙏
very nice
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Thank you very much Denise for reading my post !
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Magical!
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Thank you so much for reading my post !
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I love to read your wonderful posts.
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It is my pleasure!!! 🙏🙏🙏!!!
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बिल्कुल सही कहा आपने। ज़िंदगी के कई क्षण अनमोल होते है जो विभिन्न रंगों से जीवन को रंगोली की तरह रंगीन बना देते है मगर फिर भी हम मनुष्य सदैव नकारात्मक क्षणों को इस तरह पकडे रहते हैं की जीवन से हर रंग का आनंद ही समाप्त हो जाता है ! बहुत कम लोग हैं जो जीवन का आनंद ले पाते हैं।अत्यधिक लोग हर खुशी में भी गम तलाशते तलाशते खुद को गमगीन विदाई कर देते हैं। बहुत खूबसूरत लेखन।👌👌
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धन्यवाद ,मधुसूदन जी !जी बिल्कुल मुझे सदैव लगता है की खुशियों के क्षण बहुत ही छोटे होते हैं और दुख के क्षणों की आयु बहुत लंबी होती है और इसका प्रमुख कारण सदैव दुखों को याद रखना होता है जिससे दुःख के क्षण कभी न समाप्त होने वाले क्षण बनकर आजीवन असहनीय पीड़ा पहुंचाते रहते हैं !यही कारण है कि पोस्ट मे भी जीवन संतुलन स्थापित करने पर बल दिया गया है ताकि लोग जितना भी बचा हुआ जीवन है आनंदमयी ढंग से व्यतीत कर सकें ! और आनंदमयी ढंग से ही जीवन से रुखसत हो सकें !
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awesome selection of photos
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Thank you very much !
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Desires and necessity never ends. They keep on coming one after one. Most of the time you need to avoid to get happiness. My answer would be DAMAN. Also depends on your capabilities.
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Yes , i agree that most of the time need first than desire so we have to compromise with our happiness . It is totally up to you that you suppress or express your feelings.
Most of the people will choose “DAMAN “including me but my aim to write this blog to establish the balance in between both .
Like every human being i know that it is very difficult but if we succeed in doing this then life can be more happier .
Thank you for expressing your valuable thoughts on my post .
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Kya aapko lagta he ki aajke samay me koi apni icchaon ko chod sakta he balki aajkal to vyakti ka jeewan hi icchaon ke ird gird ghoom raha he ?
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बिलकुल , मैं आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूं कि आजकल लोग आवश्यकताओं की अपेक्षा इच्छाओं को अधिक महत्व दे देते हैं यह बदलाव हमारे समाज में तेजी से प्रचलित हो रहा है लक्षण विशेष रूप से युवाओं में तेजी से बढ़ रहा है !
एक तरफ इच्छाओं की मारामारी जो कि युवा वर्ग का विशेष लक्षण है और दूसरी और इच्छाओं का दमन जो कि परिपक्व व्यक्तियों में देखा जा सकता है !
वास्तव में समस्या दोनों में ही है एक संतुलित जीवन इच्छाओं और आवश्यकताओं के संतुलन से ही संभव है !हम साधु संत नहीं जो अपनी इच्छाओं का पूर्ण दमन कर सकें !आता इसलिए इच्छाओं का आवश्यकताओं के मध्य संतुलन बैठाने में ही सफलता है !धन्यवाद 😊
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नमन और दमन से अच्छा संतुलन रहेगा
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सबका अपना निजी एक विचार होता है और प्रत्येक व्यक्ति अपने विचार रखने के लिए स्वतंत्र भी होता है मेने भी संतुलन स्थापित करने के उद्देश्य से ही ये ब्लॉग लिखा है !
अपने अमूल्य विचार विचार रखने के लिए धन्यवाद ,धनञ्जय जी !!!🙏🙏🙏!!!
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